।। ज्ञान ईश्वर दत्त ही होता है मनुष्यकृत नहीं ।।
जो बात हम
भाषामें देखते हैं कि उसे कोई बना नहीं सकता वही बात हम ज्ञान मे भी पाते है, कि बिना
सिखाये हुए कोई कुछ भी ज्ञान सीख नहीं सकता संसार में सैकड़ों जंगली जातियाँ इस वक्त
मौजूद है, जो सावित वीसतक गिनती नहीं गिन सकतीं । दूसरी तरफ ज्योतिष विज्ञान कला कौशल
गणित भूगर्भ में लोग जमीन, आसमान एक कर रहे है, इसका क्या मतलब है? इतिहास बतला रहा
है कि एक देश दूसरे देश से, एक जाति दूसरी जाति में और एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से उसी
प्रकार ज्ञान प्राप्त करता चला आ रहा है, जिस प्रकार एक दूसरे से भाषा सीखता आता है
। धर्म जैसै पारलौकिक विषय भी मनुष्य में न जानें क्यों पाये जाते है । 'ईश्वर' जैसा
विषय जो 'सपर्यगाच्छूक्रमकायमव्रणम्' कहलाता
है उसे भी मनुष्य जानते है और बड़ी खूबीसे साबित करते है , कि यद्यपि किसीने उससे मुलाकात
नहीं की । ऐसी दशा में मानना पडता है कि आदि
सृष्टि में ज्ञान भी परमात्माकी ओरसे दिया गया और क्रम क्रम गुरु, शिष्य परम्पारसे
सारे संसार मे उसी प्रकार फैला, जैसै भाषा फैली । इसपर युरोप में फिलासफी का आदि प्रचार
प्रचारक ' जेन डिस्कार्टीज' हिस्ट्री आफ नेचरलिसमे लिखता है कि :-
" जब मै बहुत दूर और गहरायी तक सोचता हूँ
तो ज्ञात होता है कि ईश्वर संबंधी ज्ञान मनुष्य आप ही आप अपने हृदय मे पैदा नहीं कर
सकता, क्योंकि वह अनन्त है, हमारा मन सान्त है, वह व्यापक है, हम एकदेशी है और भी इसी
प्रकार समझिये इस से यह बात स्पष्ट है कि मूल विचारों को हमने स्वयं नहीं बनाया किन्तु
परमात्मा ने आदि पुरुषों के हृदयों में अपने हाथ से छाप लगादी है " । (वाक्य आलंकारिक
है अन्यथा न ले )
इस प्रकार मेडम ब्लै वेटस की अपनी पुस्तक '
सिकरेट डाॅकट्रिन में कहती है कि:- ' अनेक बड़े बड़े विद्वानों ने कहा है कि उस समय
भी कोई नवीन धर्म प्रर्वतक नहीं हुआ, जब आर्यों सेमिटिकों और तूरानियोने नया धर्म व
नवीन सत्यताका आविष्कार किया था । ये धर्मप्रवर्तक भी केवल धर्म के पुनरुद्धारक थे
मूलशिक्षक नहीं ' ।
चिप्सफ्राम ए जर्मन वर्कशाप नामी पुस्तक में तो
प्रो. मैक्समूलर ने साफ लिखदिया है कि "आदि सृष्टि में लेकर आजतक कोई भी बिलकूल
नया धर्म हुआ ही नहीं "
ये वाक्य
हमें बतलाते है कि कभी कोई नवीन सच्चाई मनुष्य आप ही आप अपने समाज से निकाल नहीं सकता
बल्कि दोहराता अथवा पुराने ज्ञान का जीर्णोद्धार करता है । यह बात बिल्कुल गलत है कि
अमुक मनुष्य ने कोई नई बात बताई वा कोई नया धर्म बनाया है । आदि सृष्टि में जो ज्ञान
परमात्माने दिया था उसी का प्रकाश घूमघामकर लौटफेर कर दूनियाँ में फैल रहा है । ऋषियों
का हमेशा से कौल रहा है कि :-
' स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्
।। 26 ।। प्रथम पाद - पात. योदर्शन/योगसूत्र ।
वह पूर्वजों का भी गुरु है जो काल के फेर में नही वह आता
अर्थात् परमेश्वर है । सरल अर्थ - ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को प्राप्त करके ही कोई शरीरधारी
व्यक्ति गुरु बनने में समर्थ होता है, इसलिये वह परमेश्वर सृष्टि के आदि से लेकर अबतक
जितपे भी ऋषि, महर्षि, आचार्य, अध्यापक, उपदेशक इत्यादि गुरु हुए हैं तथा जो आगे होंगे,
उन सबका भी गुरु है । क्योंकि वह काल से कभी नष्ट नहीं होता, वह अमर है । इसी प्रकार
से वह पिछली सृष्टि में भी सबका गुरु था और आगे आने वाली सृष्टि यों मे भी सबका गुरु
था और आगे आने वाली सृष्टियों में भी सबका गुरु रहेगा । दूसरे ऋषि कहते हैं कि :-
'शास्त्रयोनित्वात्' ।।3।। 1 अध्याय 1
पाद श्लोक 3 ।
शास्त्रयोनि
होने से उस परमात्माकी सिद्धि है, अर्थात् बिना गुरुके शास्त्रज्ञान हो नहीं सकता और
आदि सृष्टि में कोई गुरु था नहीं, पर ज्ञान संसार में देखते है तो प्रश्न होता है कि आदि पुरुषों को ज्ञान
कहाँ से हुआ ? इसका यह उत्तर है कि कोई ज्ञानदाता होना चाहिये और वह परमेश्वर है ।
जो ज्ञान ईश्वर का दिया हो और एक ही भाषाके द्वारा दियागया
हो उसका उद्देश भी महान् और एक होना चाहिये ।
।। ज्ञान और भाषाकि आवश्यकता ।।
इस संसार में
आकर मनुष्य अपने पुरुषार्थ से सब प्रकार के सुखोंका आयोजन करने पर भी जब बीमारी पुत्रविछोह
कलह और अपनी मृत्यूपर सोचता है तो सब सुखी होते हुए भी उसे महान् क्लेश होता है । वह
इस क्लेशका कारण ढूँढने लगता है । ढूँढने पर उसे केवल यही कारण मिलता है कि न हम पैदा
होते न दुःख पाते, अतः पैदा होना अथ च मरना यही सारे क्लेशों का कारण है । इस सिद्धांतके
बाद यह जानना चाहता है कि मैं कौन हूँ, क्यों पैदा हुआ किसने पैदा किया मरने के बाद
क्या होगा ? अन्त में उसे परमात्माका ज्ञान होता है और वह निश्चय करता है कि जबतक उस
अविनाशी परमपिताको प्राप्त न होऊँ, मोक्ष प्राप्त न करू तबतक ये दुःख दूर नहीं हो सकते
। बस एक मात्र इस सुख के प्राप्त करने के लिये और दूसरों को इसके योग्य बनाने के लिये
उसे भाषा और ज्ञान की आवश्यकता होती है क्योंकि –
'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः'
मनुष्य मात्रका
यही एक प्रयोजन पाया जाता है, अतः इसी प्रयोजनकी सिद्धि के लिये परमात्मा ने मनुष्यों
को ज्ञान और भाषा दी है । जिस प्रकार सब का एक प्रयोजन है उसी प्रकार ज्ञान और भाषा
भी एक है ।
पाठक! आपने
आरम्भ से लेकर यहा तक देखा कि मनुष्य स्वयं कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता और न स्वयं
कोई भाषा ही बना सकता है । अतः ये दोनों पदार्थ ईश्वरदत्त है । दोनों अनेक नहीं किन्तु
एक है और एक दूसरे मे व्याप्य व्यापक संबंध रखते है । जहा ज्ञान है वहा शब्द है और
जहाँ शब्द है वहाँ ज्ञान है । यह नियम सार्वभौम और व्यापक है । जब हम कोई ज्ञान किसी
से लेते हैं तो उस ज्ञान के साथ शब्द भी आता है । इसी प्रकार जब एक देश से दूसरे देश
देश को कोई ज्ञान जाता है तो वह शब्दों की ही थैलियों में बन्द करके भेजा जाता है ।
यदि आप युरोपसे कोई ज्ञान लाना चाहे तो वह ज्ञान उस शब्द थैली में बन्द होकर आयेगा,
जिसकी सृष्टि उस ज्ञान के साथ साथ वहाँ हुई होगी । इससे यह भी समझमें आ जाता हैं कि
अमुक देश में अमुक ज्ञान अमुक शब्द के द्वारा गया है । यदि युरोप देश में हम 'स्विग
= सिविंग ' सीना शब्द पाते है तो हम कह सकते है कि युरोप में सीने की विद्या भारत से
गई है, क्योंकि यहाँ 'सिव' धातु सीने के अर्थ में मौजूद है । इसी प्रकार यदि हम किसी
दूसरे देश में अपने देशका कोई ज्ञान पावै तो हमें समझना चाहिये कि उसका वाची शब्द भी
उस देश में होगा । चाहे उसका रुप कैसा ही बिगड़
गया हो । जैसै यदि हम युरोप में सभा
सोसाइटी करते देखें तो कहना चाहिये कि उन्होंने यह ज्ञान हमसे सीखा । अच्छा तो इसके
साथ शब्द कौनसा गया ? ढूंढने से मालूम हुआ कि इसके साथ शब्द गया 'कमिटी' । कमिटी क्या
है? यह 'समिति' का अपभ्रंश है । आज भी उसे 'सी' (स, c) अक्षर में ही लिखते है । इस
प्रकार से हम पृथिवी भरके शब्दों और ज्ञानों के संबंध को लगाकर जब देखते है तो पता
लगता है कि वह सारा ज्ञान और सारी भाषा किसी एक ही ज्ञान और भाषाकी बिगड़ी हुई सूरते
है । किन्तु प्रश्न यह है कि वह आदि ज्ञान
तथा आदि भाषा कौनसी है? यह सब अगले लेखों से बताते है ।
अक्षरविज्ञान भाग ८ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_13.html
अक्षरविज्ञान भाग १० =>