Sunday 13 November 2016

अक्षरविज्ञान भाग ९

।। ज्ञान ईश्वर दत्त ही होता है मनुष्यकृत नहीं ।।

       जो बात हम भाषामें देखते हैं कि उसे कोई बना नहीं सकता वही बात हम ज्ञान मे भी पाते है, कि बिना सिखाये हुए कोई कुछ भी ज्ञान सीख नहीं सकता संसार में सैकड़ों जंगली जातियाँ इस वक्त मौजूद है, जो सावित वीसतक गिनती नहीं गिन सकतीं । दूसरी तरफ ज्योतिष विज्ञान कला कौशल गणित भूगर्भ में लोग जमीन, आसमान एक कर रहे है, इसका क्या मतलब है? इतिहास बतला रहा है कि एक देश दूसरे देश से, एक जाति दूसरी जाति में और एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करता चला आ रहा है, जिस प्रकार एक दूसरे से भाषा सीखता आता है । धर्म जैसै पारलौकिक विषय भी मनुष्य में न जानें क्यों पाये जाते है । 'ईश्वर' जैसा विषय जो 'सपर्यगाच्छूक्रमकायमव्रणम्' कहलाता है उसे भी मनुष्य जानते है और बड़ी खूबीसे साबित करते है , कि यद्यपि किसीने उससे मुलाकात नहीं की । ऐसी दशा में  मानना पडता है कि आदि सृष्टि में ज्ञान भी परमात्माकी ओरसे दिया गया और क्रम क्रम गुरु, शिष्य परम्पारसे सारे संसार मे उसी प्रकार फैला, जैसै भाषा फैली । इसपर युरोप में फिलासफी का आदि प्रचार प्रचारक ' जेन डिस्कार्टीज' हिस्ट्री आफ नेचरलिसमे लिखता है कि :-
        " जब मै बहुत दूर और गहरायी तक सोचता हूँ तो ज्ञात होता है कि ईश्वर संबंधी ज्ञान मनुष्य आप ही आप अपने हृदय मे पैदा नहीं कर सकता, क्योंकि वह अनन्त है, हमारा मन सान्त है, वह व्यापक है, हम एकदेशी है और भी इसी प्रकार समझिये इस से यह बात स्पष्ट है कि मूल विचारों को हमने स्वयं नहीं बनाया किन्तु परमात्मा ने आदि पुरुषों के हृदयों में अपने हाथ से छाप लगादी है " । (वाक्य आलंकारिक है अन्यथा न ले )

         इस प्रकार मेडम ब्लै वेटस की अपनी पुस्तक ' सिकरेट डाॅकट्रिन में कहती है कि:- ' अनेक बड़े बड़े विद्वानों ने कहा है कि उस समय भी कोई नवीन धर्म प्रर्वतक नहीं हुआ, जब आर्यों सेमिटिकों और तूरानियोने नया धर्म व नवीन सत्यताका आविष्कार किया था । ये धर्मप्रवर्तक भी केवल धर्म के पुनरुद्धारक थे मूलशिक्षक नहीं ' ।

          चिप्सफ्राम ए जर्मन वर्कशाप नामी पुस्तक में तो प्रो. मैक्समूलर ने साफ लिखदिया है कि "आदि सृष्टि में लेकर आजतक कोई भी बिलकूल नया धर्म हुआ ही नहीं "
     
         ये वाक्य हमें बतलाते है कि कभी कोई नवीन सच्चाई मनुष्य आप ही आप अपने समाज से निकाल नहीं सकता बल्कि दोहराता अथवा पुराने ज्ञान का जीर्णोद्धार करता है । यह बात बिल्कुल गलत है कि अमुक मनुष्य ने कोई नई बात बताई वा कोई नया धर्म बनाया है । आदि सृष्टि में जो ज्ञान परमात्माने दिया था उसी का प्रकाश घूमघामकर लौटफेर कर दूनियाँ में फैल रहा है । ऋषियों का हमेशा से कौल रहा है कि :-

         ' स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।। 26 ।। प्रथम पाद - पात. योदर्शन/योगसूत्र ।

वह पूर्वजों का भी गुरु है जो काल के फेर में नही वह आता अर्थात् परमेश्वर है । सरल अर्थ - ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को प्राप्त करके ही कोई शरीरधारी व्यक्ति गुरु बनने में समर्थ होता है, इसलिये वह परमेश्वर सृष्टि के आदि से लेकर अबतक जितपे भी ऋषि, महर्षि, आचार्य, अध्यापक, उपदेशक इत्यादि गुरु हुए हैं तथा जो आगे होंगे, उन सबका भी गुरु है । क्योंकि वह काल से कभी नष्ट नहीं होता, वह अमर है । इसी प्रकार से वह पिछली सृष्टि में भी सबका गुरु था और आगे आने वाली सृष्टि यों मे भी सबका गुरु था और आगे आने वाली सृष्टियों में भी सबका गुरु रहेगा । दूसरे ऋषि कहते हैं कि :-

           'शास्त्रयोनित्वात्' ।।3।। 1 अध्याय 1 पाद श्लोक 3 ।

       शास्त्रयोनि होने से उस परमात्माकी सिद्धि है, अर्थात् बिना गुरुके शास्त्रज्ञान हो नहीं सकता और आदि सृष्टि में कोई गुरु था नहीं, पर ज्ञान संसार में  देखते है तो प्रश्न होता है कि आदि पुरुषों को ज्ञान कहाँ से हुआ ? इसका यह उत्तर है कि कोई ज्ञानदाता होना चाहिये और वह परमेश्वर है ।
जो ज्ञान ईश्वर का दिया हो और एक ही भाषाके द्वारा दियागया हो उसका उद्देश भी महान् और एक होना चाहिये ।

।। ज्ञान और भाषाकि आवश्यकता ।।

      इस संसार में आकर मनुष्य अपने पुरुषार्थ से सब प्रकार के सुखोंका आयोजन करने पर भी जब बीमारी पुत्रविछोह कलह और अपनी मृत्यूपर सोचता है तो सब सुखी होते हुए भी उसे महान् क्लेश होता है । वह इस क्लेशका कारण ढूँढने लगता है । ढूँढने पर उसे केवल यही कारण मिलता है कि न हम पैदा होते न दुःख पाते, अतः पैदा होना अथ च मरना यही सारे क्लेशों का कारण है । इस सिद्धांतके बाद यह जानना चाहता है कि मैं कौन हूँ, क्यों पैदा हुआ किसने पैदा किया मरने के बाद क्या होगा ? अन्त में उसे परमात्माका ज्ञान होता है और वह निश्चय करता है कि जबतक उस अविनाशी परमपिताको प्राप्त न होऊँ, मोक्ष प्राप्त न करू तबतक ये दुःख दूर नहीं हो सकते । बस एक मात्र इस सुख के प्राप्त करने के लिये और दूसरों को इसके योग्य बनाने के लिये उसे भाषा और ज्ञान की आवश्यकता होती है क्योंकि –

                  'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः'

       मनुष्य मात्रका यही एक प्रयोजन पाया जाता है, अतः इसी प्रयोजनकी सिद्धि के लिये परमात्मा ने मनुष्यों को ज्ञान और भाषा दी है । जिस प्रकार सब का एक प्रयोजन है उसी प्रकार ज्ञान और भाषा भी एक है ।


       पाठक! आपने आरम्भ से लेकर यहा तक देखा कि मनुष्य स्वयं कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता और न स्वयं कोई भाषा ही बना सकता है । अतः ये दोनों पदार्थ ईश्वरदत्त है । दोनों अनेक नहीं किन्तु एक है और एक दूसरे मे व्याप्य व्यापक संबंध रखते है । जहा ज्ञान है वहा शब्द है और जहाँ शब्द है वहाँ ज्ञान है । यह नियम सार्वभौम और व्यापक है । जब हम कोई ज्ञान किसी से लेते हैं तो उस ज्ञान के साथ शब्द भी आता है । इसी प्रकार जब एक देश से दूसरे देश देश को कोई ज्ञान जाता है तो वह शब्दों की ही थैलियों में बन्द करके भेजा जाता है । यदि आप युरोपसे कोई ज्ञान लाना चाहे तो वह ज्ञान उस शब्द थैली में बन्द होकर आयेगा, जिसकी सृष्टि उस ज्ञान के साथ साथ वहाँ हुई होगी । इससे यह भी समझमें आ जाता हैं कि अमुक देश में अमुक ज्ञान अमुक शब्द के द्वारा गया है । यदि युरोप देश में हम 'स्विग = सिविंग ' सीना शब्द पाते है तो हम कह सकते है कि युरोप में सीने की विद्या भारत से गई है, क्योंकि यहाँ 'सिव' धातु सीने के अर्थ में मौजूद है । इसी प्रकार यदि हम किसी दूसरे देश में अपने देशका कोई ज्ञान पावै तो हमें समझना चाहिये कि उसका वाची शब्द भी उस देश में होगा । चाहे उसका रुप कैसा ही बिगड़  गया  हो । जैसै यदि हम युरोप में सभा सोसाइटी करते देखें तो कहना चाहिये कि उन्होंने यह ज्ञान हमसे सीखा । अच्छा तो इसके साथ शब्द कौनसा गया ? ढूंढने से मालूम हुआ कि इसके साथ शब्द गया 'कमिटी' । कमिटी क्या है? यह 'समिति' का अपभ्रंश है । आज भी उसे 'सी' (स, c) अक्षर में ही लिखते है । इस प्रकार से हम पृथिवी भरके शब्दों और ज्ञानों के संबंध को लगाकर जब देखते है तो पता लगता है कि वह सारा ज्ञान और सारी भाषा किसी एक ही ज्ञान और भाषाकी बिगड़ी हुई सूरते है । किन्तु प्रश्न यह है कि वह आदि ज्ञान तथा आदि भाषा कौनसी है? यह सब अगले लेखों से बताते है ।

अक्षरविज्ञान भाग ८ =>   http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_13.html
अक्षरविज्ञान भाग  १० =>

अक्षरविज्ञान भाग ८

।। भाषा मनुष्यों को क्यों दी गई ।।

मनुष्य बिना नैमित्तिक ज्ञान पाये यदि अपने स्वाभाविक पोजीशन में रखा जाये तो वह उसी प्रकारका हो सकता है, जैसा अभी का पैदा हुआ बच्चा । वह खाने के लिये मुह चलाना, पीने के लिये घूँटना मात्र जानता है, पर क्या खाना क्या पीना आदि बिलकुल नहीं जानता । वह दूध पानी आदिको नहीं पहिचानता । जबतक माता स्तनको मुहमें न लगादे तबतक वह स्तनोंको भी नही ढूंढ सकता । सृष्टिकी आदि में यदि इस प्रकारकी पैदा हुई सृष्टि मानें तो वरवस माननी पडेगा कि ऐसी मनुष्य सृष्टि बिना माता पिता के एक दिन भी जी नहीं सकती । क्योंकि हम देखते है कि पलक मारना, छींकना, खासना, श्वास लेना, जम्हाई, रोना, हँसना, चलबलाना, घूँटना आदि ही मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान है । इसके अतिरिक्त ' यह पानी है ', ' यह दूध है ', 'यह स्तन है , यह माता है,' आदा रागस्त ज्ञान नैमित्तिक है । " खड़ा होना और दो पैरसे चलना भी नैमित्तिक है " क्योंकि जो लड़के भेड़ियोंकी मांदसे पाये गये है, सब चारों पावसे ही चलते देखे गये है । "हाथोंको मुंहमे लेजाना भी नैमित्तिक है" क्योंकि मांदमे पाये हुए मुंहसे ही खाते पीते देखे गये है । 'हाथ से कुछ पकडना तो बिलकुल ही नैमित्तिक है,' क्योंकि कई महिने तक लड़केकी मुठी ही नही खुलती 'इस प्रकार भाषा भी नैमित्तिक है,' क्योंकि मांदवाले लड़के सिवाय 'कूँ कूँ' के और कुछ भी बोलते हुए नहीं देखे गये । मतलब यह कि मनुष्य में जो कुछ मनुष्यता है, सब नैमित्तिक और ईश्वर के निमित्तासे है , कारण कि ' मनुष्यता' मनुष्य अथवा ईश्वर से ही सीखी जा सकती है । मनुष्यको मनुष्य बनाने वाला संसार में और दूसरा कोई प्राणी नहीं है ।

मनुष्य की इस असली हालत से समझ सकते हो कि आदि सृष्टि में उसको कितने निहायत जरूरी नैमित्तिक ज्ञानोंकी आवश्यकता थी । सबसे पहिले उसे खाने पीने अर्थात् जीवनयात्रा सम्बन्धी पदार्थोंकी पहिचान निहायत जरुरी थी । दूसरे इस अपरिचित अतएव अद्भुत सृष्टिका कुछ हाल जानना भी कम जरुरी नहीं था । तीसरे समस्त मनुष्यों में मिलकर एक दूसरों को सान्त्वना प्रेमालाप और शंका समाधान करके उचित व्यवस्था करनेका ज्ञान भी उतना ही आवश्यक था, जितना भोजन । चौथे मै कौन हूं, यहा क्यों आया किसने भेजा, मेरा सबसे अन्तिम कर्तव्य क्या है ? यह ज्ञान उपरोक्त तीनों ज्ञानोंसे भी अधिक जरूरी था ।
(वो लोग पशुओं की मिसाल देते हैं कि 'पशु बिना सिखाये खाते पीते और जीते है। उसी प्रकार मनुष्यों ने भी क्रम क्रम उन्नति की है' वे गलतीपर है । आजतक किसी पशुके बच्चेकी उसकी माँ का स्तन तलाश करने के लिये किसीने नहीं सिखलाया । वह पैदा होते ही खडे होकर अपनी माँ का स्तन ढूँढ लेता है, पर क्या कभी मनुष्य के बच्चे ने भी पैदा होते ही अपनी माँ का स्तन ढूँढ लिया है ? नही । अतः उसे नैमित्तिक ज्ञानकी निहायतजरुरत है ।)

उस समय- आदि सृष्टि के समय यदि इतना ज्ञान न दिया जाय तो मनुष्य भूख प्यास सरदी गर्मी से अपनी रक्षा न कर सके, सूर्य चन्द्र नदी समुद्र बन पर्वत मेघ गर्जन और विद्युत तथा सिंह व्याघ्र को देखकर घबरा जाय । शादी विवाह वंश स्थापन भी न हो सके और न अपना कर्तव्य जानकर अपने उस लक्ष्य ( मोक्ष ) को पहुँच सके, जिसके लिये वह पैदा किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि उनमें सूक्ष्म से सूक्ष्म विस्तृत से विस्तृत और विशद से विशद ज्ञान विद्यमान था । वे सृष्टि होने का कारण जान चुके थे । उन्हें बतला दिया गया था कि 'सूर्याचन्दरमसौ धाता यथा पूर्वकल्पयत्' ' शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये' 'ऊर्ज बृहन्तीरमृत धृतं पयः कीलाल परिस्रुतम्' ' त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी' ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतम्' 'ईशा वास्यम् इदम् सर्वम् ' 'समानी प्रषासहवो अन्नभागः' 'यथेमां वाचं मावदानि जनेभ्यः,' 'आदि अर्थात् मत घबराव' यह सूर्य चन्द्र वैसै ही है जैसै पहले कल्पमे थे' 'वह देखो जल तुम्हारे पीने के लिये है' 'घी दूध फल शहद खाने के लिऐ है,' 'तुम जीव हो कर्मोनुसार स्त्री पुरुष और अन्य पशुपक्षी आदि योनियों में जन्म पाते हो' 'कर्म करते हुऐ सौ वर्ष जीना' 'इस संसारका स्वामी 'ईश्वर' समझना और मोक्ष प्राप्त करना तथा सब मनुष्य मिल जुलकर खाना पीना' आपस में मिलजुलकर चलो बोलो बातचीत करो और सबको 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे मित्रदृष्टिसे देखो । इस प्रकारका सूक्ष्म और विशद ज्ञान उनको उसी समय दिया गया था । यह ज्ञान बिना भाषा के सहारे किसी प्रकार भी नहीं दिया जा सकता था और न बिना भाषा के यह ज्ञान स्थायी रहकर उनके वंशजोंको मिल सकता था, क्योंकि हम देखते है कि बिना भाषाके इस प्रकारका आद्यन्त (पूर्ण) सूक्ष्म ज्ञान 'गूंगे-बहरे मनुष्यों को शीघ्रतासे वा देरसे नहीं सिखलाया जा सकता और न वह गूंगा-बहरा किसी दूसरेंको ही कुछ सिखला सकता है' अतएव मानना पडेगा कि मूल पुरुषों को सूक्ष्म ज्ञान सिखाने और वह ज्ञान औरों में फौलाने के लिये उनको परमात्माने भाषा अवश्य दी ।

उपरोक्त सिद्धांतपर लोग शंका कर सकते है कि " जिस प्रकार बिना भाषाके सूक्ष्म ज्ञान नही सिखलाया जा सकता उसी प्रकार बिना किसी भाषाके भाषा भी तो नही सिखलाई जा सकती । जब आदि सृष्टि में मनुष्य किसी भाषाका बोलनेवाला था ही नही तो मूल पुरुषोंने भाषा किससे कैसै सिखी ?"

।। भाषा मनुष्य को कैसे दी गई ।।

भाषा सिखने के लिऐ मनुष्यों को मुहकी और जोरसे बोलने की जरुरत होती है । सृष्टि को देखकर भयभीत हुए मनकी शांति, समाज, और सन्तानकि शिक्षा, प्रेम और प्रबंध तथा अपने कर्तव्य पालनकी शिक्षा आदि के लिये आदि सृष्टि में ज्ञानकी आवश्यकता थी ।

प्र- भाषा और ज्ञानके सिखानेकी क्या आवश्यकता थी ? क्या क्रम 2 उन्नति नहीं हो सकती ?
उत्तर :- नहीं । यदि बिना सिखाये ज्ञान और भाषा आजाती तो स्कूल और कॉलेज क्यों खोले जाते ? सबलोग क्रम 2 उन्नति कर न लेता?

प्र- स्कूल विशेष ज्ञानके लिये खोले जाते है उस समय तो साधारण ज्ञानकी आवश्यकता थी ।
उत्तर :- उसी समय तो विशेष ज्ञानकी आवश्यकता थी, क्योंकि सब मनुष्य एक अपरिचित स्थान मे एकाएक आये थे ।

प्र- विना उस्ताद और बिना उस्तादके मुहके भाषा और ज्ञान कैसै सिखाया जा सकता है ?
उत्तर :- जिस प्रकार मेस्मरेजम करनेवाला अपने सब्जेक्टमे बिना सीखी हरकत और बिना सुनी हुई भाषा बोलवा देता है उसी प्रकार आन्तर्यामी पर मात्माने भी सिखाया ।

प्र- मनुष्योंको ही क्यों ज्ञान और भाषा सिखानेकी आवश्यकता हुई ?
उत्तर :- यद्यपि इसका वर्णन बहुत है तथापि सारंशरुपसे समझो कि मनुष्योंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिये भाषा और ज्ञान दिया गया है ।

।। सबका ज्ञान और भाषा एक ही थी ? ।।

भाषाका मुख्य उद्देश्य आत्मरक्षा प्रामाणिक व्यवहार और मोक्ष है मनुष्य समाजप्रिय प्राणी है इसलिये उसमें समान बन्धन दृढ करनेके लिऐ - एक मन एक बुद्धि एक विचार होने के लिऐ ही परमात्माने उसे वाणी दी है । ऐसी दशा मे सबकी एक ही भाषा होनी चाहिये ।

भाषा ईश्वरदत्त है । वह निस्सन्देह सबके लिये सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल वायु, अग्नि, सर्दी गर्मीकी भाँति समान है । ऊपर हम सृष्टि नियमों के प्रमाणोंसे सिद्ध कर आये है कि भाषा निस्सन्देह देवदत्त है अतएव वह अवश्य एव निश्शसय सबकी एक ही थी तथापि हम यह दो एक युरोप के भाषा तत्व जानने वालोंकी गवाही देते है ।


युरोप में आजतक प्रो मैक्समूलरकी भाँति बहुभाषाज्ञानी कोई भी पंडित नहीं हुआ । पृथ्वी की 900 भाषाओथ को एक गहरी नजर से देखकर वह कहता है कि 'भाषाओं के बिगाडने का कारण मनुष्यकी असावधानी है' सेमिटिक भाषाओं को आर्य भाषा भाषाओं से पृथक् बतलाता हुआ भी मैक्समूलर आगे चलकर कहता है कि " आर्यभाषाओंके 'धातु' रस और अर्थ मे सेमिटिक अरालाटक, बन्टो, और ओशीनिया, की भाषाओं में मिलते है" अन्त में कहता है कि, 'निस्सन्देह मनुष्य की मूलभाषा एक ही थी "। इसीकी पुष्टी 'एण्डोजैक्सन डेविस' इस प्रकार करता है कि " भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदि है ह भाषाके मुख्य उद्देश में कभी उन्नती का होना सम्भव नहीं , क्योंकि उद्देश सर्वदेशी और पूर्ण होते है, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता । वे सदैव अखण्ड और एकरस होते हैं ।( देखो हारमोनिया भाग 5 पृष्ठ 73 एण्डोजैक्सन डेविस ) इन विद्वानों ने भी वही सार्वजनिक साधन की दलीले दी देकर एक भाषाकी गवाही दी है ।

 ।। भाषा के साथ ज्ञान का संबंध? ।।

     भाषा मनुष्य को परमात्माने क्यों दी है, इसका वर्णन पूर्व प्रकरण में  आगया है । किन्तु यहा कुछ स्पष्ट रीतिमें दिखलाना चाहते है । भाषाका उद्देश सार्वजनिक साधन माना गया है, क्योंकि मनुष्य समाज के विना एक दिन जी नहीं सकता । संसार में समाजका दास जैसा मनुष्य है, दूसरा कोई प्राणी नहीं है । इसका कारण यह है कि ह अपना कोई भी काम विना दूसरे की मद्द कर नहीं सकता । पैदा होने के दिन से लेकर मृत्यूकी घड़ी  तक खेलने कूदने शादी विवाह धन उपार्जन बिमारी तकलीफ गरीबी अमीरी आदि सभी दशाओं में इसको मनुष्य  की दरकार होती है । मनुष्य  के साथ संबंध दृढ करपे का मात्र साधन भाषा है । इसी लिये भाषाको सार्वजनिक नाम दिया गया है । यदि मनुष्य को मनुष्य समाज में रहने की दरकार  न होतो उसे पाणी की भी दरकार न होगी । सच तो यह है कि प्राणी होकर भी वह किससे बोलेगा ?

     किन्तु विचार यह करना है कि भाषाके साथ अर्थका क्या संबंध है?  आप जरा गौरसे अपने मनमे देखे तो पता लगेगा कि बोलने के पहिले आपके मन में जो कुछ विचार उत्पन्न होते है उन्हीं को आप बोलते हैं । और प्रत्येक विचार को बाहर प्रकट करने के लिये आप पहिले ही से अपने पास शब्द पाते है । यदि कहीं कोई नया विचार सीखते है तो वहा भी विचार और तत्सम्बन्धी शब्द दोनो नये नये एक साथ सीखते है । मानो कोई विचार बिना शब्द और कोई शब्द बिना विचार के रही नहीं सकता । इसी लिये कहागया है कि शब्दका अर्थ के साथ उसी प्रकार का संबंध है, जिस प्रकार अग्नि और गर्मीका है । इसपर 'कोलरिक' कहता है कि 'भाषा मनुष्यका एक आत्मिक साधन है' जिसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिचने इस प्रकार की है कि 'ईश्वर ने मनुष्य को प्राणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुद्धि दी है, क्योंकि मनुष्यका विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है ।' ( देखो स्टडी ऑफ वर्डस् आर.सी.ट्रीनिच डी.डी. )

      इसमें ज्ञात होता है कि भाषाके साथ ज्ञान अर्थात् अर्थका संबंध बनावटी नहीं किंन्तु स्वाभाविक अतण्व वैज्ञानिक है ।

      हम इस शरीर में (जो परमात्माकी कलम से सिखाया गया है) ज्ञान और शब्दका घनिष्ट संबंध बड़ा ही विचित्र पाते है । अब प्रश्न वह है कि आप ज्ञान कहासे प्राप्त करते हैं?  पञ्च ज्ञानेन्द्रियों से न? अच्छा अब आप देखे कि जहा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय है उन्हीं के बीच में उस ज्ञान को बाहर निकालने वाला मुख विद्यमान हे न? क्यों मुखपर पीठपर न बनाया गया? मैं तो कहता हूँ कि मुख अगर हाथ की हथेलीपर होता तो लेकचर खूब देते बनता और भोजन करने में सुविधा होती पर क्या मुख अपनी प्यारी सहचरी ज्ञानेन्द्रियों मे कभी जुदा रह सकता था? क्या कभी ऐसा हो सकता है कि 'नाम' और 'नामी' अलग अलग हों? यह रचना भी हमको एक लेकचर सुनाती है कि ज्ञान और शब्द का स्वाभाविक मेल है ।


       जब कोई आदमी कोई ऐसी चीज खाता है जिसको पहिले उसने कभी नहीं खाया और दूसरा आदमी जब पूछता है कि कहो इस पदार्थ का स्वाद कैसा है तो वह तबतक किसी भी शब्द द्वारा उस पदार्थ के स्वाद को नहीं समझा सकता, जबतक उस पदार्थ को पूछने वालों के मुँह मे रहकर उसके स्वाद का ज्ञान न करादे । क्या यह रहस्य हम मे यह नहीं कहता कि शब्द बिना ज्ञानके निरर्थक है । हमें इस विषय को उस प्राणी के साथ मिलाना चाहिये, जो ईश्वर की ओरसे दी गई है । और प्रश्न करना चाहिये कि क्या वह भाषा बिना ज्ञान के थी? उपरोक्त वर्णन ने सिद्ध करदिया है कि बिना ज्ञान के वाणी निरर्थक है । परमात्माका कोई भी काम निरर्थक हो नहीं सकता, क्योंकि उसने जब भाषाको सार्वजनिक साधन बनाकर दिया है तो उस भाषाका कोई अर्थ अथवा उसमें कोई ज्ञान न हो तो सार्वजनिक साधन ही क्या हुआ? क्या हूँ हूँ वा काँउ काँउ वाली भाषा से कोई सार्वजनिक काम चल सकता है? इसलिये मानना पडे़गा कि भाषाके साथ ज्ञान (अर्थ) का संबंध स्वाभाविक है ।

अक्षरविज्ञानं भाग ७ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_10.html
अक्षरविज्ञानं भाग ९ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_29.html

Thursday 10 November 2016

अक्षरविज्ञान भाग ७

" क्या मनुष्य कोई भाषा बोलता हुआ पैदा है "

पहले लेख मे दिये तीन प्रश्नों  मे से दो के उत्तर हम दे चुके जो यह प्रश्न थे :-

१) क्या आदि सृष्टि में मनुष्य का बाप मनुष्य ही था , अथवा विकासवाद ( डार्विन थ्योरी ) के अनुसार क्रमक्रम किन्ही दूसरे प्राणियों ( बन्दर ) की शक्लो में होता हुआ ' यह मनुष्य ' वर्त्तमान मनुष्य हुआ ?

२) क्या आदि सृष्टिमें ' मनुष्य सृष्टि ' किसी एक ही स्थान पर हुई, अथवा पृथ्वी के भिन्न भिन्न भागोंमें ?

अब तीसरे प्रश्न का उत्तर दे रहे है ।

३) क्या मनुष्य कोई न कोई भाषा बोलता हुआ ही पैदा हुआ, अथवा उसने क्रम क्रम बहुत दिनके बाद कोई भाषा बनाली ?


तीसरे प्रश्न का उत्तर ।

क्या मनुष्य कोई न कोई भाषा बोलता हुआ पैदा हुआ ? इस प्रश्न उत्तर में यद्यपि अधिक माथा मारी करनी व्यर्थ है तथापि हम कुछ दलीले और युरोप के विद्वानोंकी राये लिखेंगे । इस विषय में भारतवर्ष की अधिक रायें न लिखेंगे, क्योंकि यहाका पुरानेसे भी पुराना इतिहास, यहाकी फिलासफी( दर्शन), यहाका विज्ञान सभी एकस्वर होकर चिल्लाते है कि आदिसृष्टि में  मनुष्य सभी प्रकारके ज्ञान, भाषा, आचार और प्रबन्ध बुद्धियोंके सहित पैदा हुए थे, जहाँ की एकदम एकतरफा ऐसी डिगरी है वहाका प्रमाण उद्धृत करना भी न करने के बराबर है ।

भाषा विषय में हम देखते हैं कि हिन्दोस्तान का बच्चा जिस प्रान्त में पैदा होता है  अपने प्रान्तकी ही ( बंगला,  मराठी, गुजराती हिन्दी आदि) भाषा बोलने लगता है । प्रान्तकी नहीं किन्तु अपने गावकी विशेष कर अपने घरकी और ज्योंकी त्यों अपनी माताकी भाषा बोलता है । इसी लिये भाषाका ' मातृभाषा ' नाम पडा है । हिन्दोस्तान ही में क्यों ?  सारी पृथिवी के बच्चे अपने देशकी और विशेष कर उसकी भाषा बोलते हैं,  जिसकी गोद में पलते हैं । हम तार्जुब करते है कि हिन्दोस्तान का बच्चा अंग्रेजी क्यों नही बोलता । अथवा युरोप के लडके संस्कृत क्यों नही बोलते । क्या इसका यही कारण नहीं है कि बच्चे जो कुछ सुनते हैं वह बोलते है । अर्थात् बच्चों को बोली बुलवाने के लिये उनके कानके पास कुछ बोलना पडता है  । मतलब यह कि बगैर सिखाये कोई भी मनुष्य बोल नही सकता ।

बिना सिखाये हुए, सिखाने वालोंकी भाषा न सही, पर अपने आप ही कोई नई भाषा तो उसे जरूर बोलना चाहिये, क्योंकि बोलने का यन्त्र मुह और उसके अन्दर सब पुरजे तो है किन्तु अफसोस वह कोई नई भाषा बना भी नही सकता । यह बात हमको तब प्रमाणित होती है, जब हम किसी जन्मबधिरकी ओर ध्यान देते है । आपने सैकडों गूंगे मनुष्य देखे होंगे, उनको बहरा भी पाया गया होगा । किन्तु यह न देखा होगा कि उन्होंने कोई भाषा अपनी सारी उमर में भी बनाली हो । क्यों बहरा कोई भाषा बना नहीं सकता ? क्यों प्रत्येक जन्म बधिर गूंगाही होता है ? इसलिये कि उसको किसीकी भाषा सुनाई  नही पडती । यदि कहो कि बहरे के मुखतन्तु खराब हो जाते है इसलिये  वह नहीं बोल सकता तो इसका भी वही अर्थ हुआ कि यदि वह सुनता तो जरुर वही सुनी हुई भाषा बोलने की कोशिश करता, किन्तु उसने सुना नहीं, अर्थात्‌ शिक्षा नहीं मिली इसी लिये काम न पडने के कारण यन्त्र भी खराब होगया, पर " गूंगे बहरे स्कूलों मे उनसे यन्त्रके सहारे बोलवा भी दिया जाता है ""। यह भी एक प्रबल प्रमाण है कि मनुष्य बिना शिक्षा के कोई भाषा बना नहीं सकता ।

कान और मुख दुरूस्त होते हुए भी अर्थात् बिना बहरे और गूंगेपन के भी अगर किसी बच्चें को ममनुष्य की भाषा सुननेको नहीं मिली तो वह कोई भाषा बोल नहीं सकता और न आजीवन कोई भाषा बना सकता है ।

बहुधा बच्चे भेड़ियों की मान्दों मे पाये गये है । और जब कभी वे पाये गये है, चाहे उनकी आयु सोलह या बीस वर्षकी भी होगई हो, पर उनमें वही भेड़ियों के शब्द (गुर्राने) के अतिरिक्त शुद्ध अकारके उच्चारण करने की भी सामर्थ्य नहीं पाई गई । ये बाते मेंढक खाने की गप्पे नही हैं किन्तु ये वे घटनायें है जो युरोप और अशिया तथा हिन्दोस्तान में अनेक बार हो चुकी है और अंग्रेजी तथा हिन्दी ( सरस्वती आदि ) पत्रोने अनेक बार इनपर निबन्ध लिखे है । अभी कुछ  समयकी बात है इसी प्रकारका एक मनुष्य खेतों में भेड़ियों की मान्द के आसपास चारों पावों से चलता हुआ ( मनुष्यकी सुरत का ) देखा गया, लोग उसे पकड लाये और दो चार रात गांव में रखकर देखा, पर वह सिवाय मांस के न कुछ खाता था न बोलता था,  डरके मारे कापता था । यह हाल देखकर लोगों ने उसे आर्य समाज के अनाथालय बरेली में पहुंचा दिया । बहुत दिनतक वह वहा रहा और जीता रहा । अब नही कह सकते कि वहा है या नहीं । कहने का मतलब यह कि उसकेकान भी दुरुस्त थे और मुख-यन्त्र भी ठीक था, पर वह कोई नई भाषा बना नहीं सकता ।

प्रोफेसर मैक्समूलर कहते हैं,  कि मिश्र के बादशाह ' सीमीटीक्स ' ने दो सद्यत प्रसूत बालकों को गडरियेके सुपुर्द किया और ऐसा प्रबन्ध किया कि पशुओं के अतिरिक्त मनुष्यों की भाषा सुनने को न मिले, जब लड़के बड़े हुए तो देखा गया कि उनको ' कू ' ' का ' के अतिरिक्त कुछ भी बोलना नहीं आता था । इसी प्रकार ' द्वितीय फ्रेडरिक ' ' चतुर्थ जेम्स ' और अकबरशाह दिल्ली आदिने भी परीक्षार्थ बच्चों को मनुष्यकी भाषासे पृथक रखकर देखा, पर अन्त मे यही पाया कि मनुष्य बगैर सिखाये भाषा सीख नहीं सकता । ( देखो साइन्स आफ दी लाॅग्वेज पृष्ठ 481 ) पर -

भाषा शनैः शनैः ध्वन्यात्मक शब्दों और पशुओं की  बोलीसे उन्नति करके इस दशाको पहुंची है । किन्तु डार्विन के इस मन्तव्यका प्रबल खण्डन प्रोफेसर ' नायर ' ने उसी समय किया और अब मैक्समूलर भी इस विषय में डार्विनादिके प्रतिपक्षी है । वे कहते हैं कि ' मनुष्य की भाषा, ध्वनि अथवा पशुओं की बोली से नहीं बनीं ' । प्रोफेसर ' पार्ट ' भी बड़ी उत्तमतासे डार्विन के सिद्धांत का खण्डन करते हुए बतलाते है कि " भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया , केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं । पर किसी भी पिछली जातिने एक धातुभी नया नहीं बनाया । हम एक प्रकारसे वही शब्द बोल रहे है, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुह से निकले थे " ।

'शक' 'एडमस्मिथ' 'ड्यूगल्डस्टुआर्ट' आदिके कथनानुसार मनुष्य बहुत कालतक गूंगा रहा । संकेत और श्रृप्रक्षेपसे काम चलाता रहा । जब काम न चला तो भाषा बनाली और परस्पर संवाद करने से शब्दों के अर्थ नियत करलिये इसका उत्तर प्रो. मैक्समूलर ने इतना मुहतोड दिया है कि । आप फरमाते है कि " मैं नही समझता कि बिना भाषाके उनमें परस्पर संवाद किन प्रकार जारी रह सका । क्या अर्थ नियत कलने के पूर्व संवाद निरर्थक ही चला आता था ? " । इसके आगे आप कहते है कि ' मेरा मुख्य उद्देश यह सिद्ध करना है कि भाषा मनुष्य की बनाई हुई नहीं है । मै सहमत हूँ  कि  " शब्द अनादि कालसे बने बनाये है " बल्कि उसमें इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि ' शब्द अनादि कालसे बनेबनाये है और वे ईश्वर की और से है ' ( देखो सायंस आफ दी लाॅग्वेज )

भाषा ईश्वर प्रदत्त है, इस विषय में ऋषि कहते है कि -

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पॅथक् ।
वेदशब्देब्य एवाऽऽवौ पृथ्वक्संस्थाश्च निर्ममे ।। 21 ।। मनु. 1/21

सृष्टिकी आदि में परमात्मा ने वेदो से सबके नाम कर्म और व्यवस्था अलग अलग निर्मित किया।

तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधमेव च ।
सृष्टिं ससर्ज चैवेमां स्त्रष्टुमिच्छन्निमाः प्रजाः ।।25।। मनु. 1/25


प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा करने वाले (परमात्मा) ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोध को उत्पन्न किया । वेद स्वयं कहता है कि ' यथेमा वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ' जिस प्रकार मैने कल्याणकारी वाणी मनुष्यों को दी है । इत्यादि प्रमाण काफी है ।

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Tuesday 1 November 2016

अक्षरविज्ञान भाग ६

आदि सृष्टि एकही स्थानमें हुई

    नदीके सूख जानेपर जिस प्रकार रेतमें कोई वृक्ष आपही आप नहीं  उग निकलता और न समुद्र में  घाटा हो जानेपर वालूसे दरख्त उगता हुआ देखा गया है । इसी प्रकार हम सृष्टि  में  बडे़ गौरसे देखते है कि जब कोई नई भूमि समुद्र  के पेटसे बाहर निकलती है और रेतके मैदानों  की भांति स्थल रुप में  परिणत होती है । तो उसमें  तबतक कोई पदार्थ पैदा नहीं  होता, जबतक रेत बारीक होकर कुछ लसदार ( मिट्टी ) न होजाय । लसदार हो जानेपर भी बीज आपही आप उसमे से निकल नहीं  आता किंतु अनेक कारणों  के द्वारा  प्रेरित होकर आँधी तूफान पशु , मक्खीमच्छर  आदिसे प्रभावित होकर वहा पहुचता है । जिन लोगो का ख्याल शायद यह हो कि कुछ दिनके बाद उस जड और निर्जीव रेतसे ही वृक्षों के अंकुर निकलने लगते होंगे, उनका वैसाही अनुमान है जैसा किसीने चक्कीसे आटा गिरता देखकर चक्की के भीतर गेहूँ  के खेतों  का अनुमान किया था ।

अतएव यह घटना हमे बतला रही है कि -

        बीज आप ही आप नहीं निकलता किन्तु बीज तलाश करके बड़े यत्नसे किसी अनुकूल स्थान में बोया जाता है । तब पौधे तैयार होते है ओर अन्य स्थानमे लगाये जाते है । यही क्रम हम रोज बगीचे में देखते है । माली पहले एक क्यारीट में बीज तैयार करता है, फिर वहासे पौधे लेकर, सारी फलवाटिका में लगता है तथा काम पड़ने पर दूर देशको भी भेजता है । कहने का मतलब यह कि बीज सर्वत्र पैदा नहीं होता, वह एक ही स्थानसे सर्वत्र फैलता है । अतः इस बीज क्षेत्रन्यायसे मनुष्य भी पहले किसी एक ही स्थान में पैदा हुआ और फिर संसार में फैला ।

      माली को जिस प्रकार बीज बोने के लिए दो बातें ध्यान में रखनी पड़ती है, उसी प्रकार मनुष्य के पैदा करनेमे परमात्मा को भी दो बातें ध्यान में रखनी पड़ी होगी ।
   
      माली उसी स्थान में बीज बोता है जहाँ का जल वायु उस पौधे के अनुकूल हो और उसका खाद्य बहुत मिल सके दूसरे आँधी, ओले आदि बाहरी अफ़तों से भी पौधे की रक्षा हो सके । इसीतरह मनुष्य भी ऐसे ही स्थान में पैदा किया गया होगा जहाँ का जल वायु उसके अनुकूल हो और उसका खाद्य उसे मिलसके तथा आँधी, तूफान, जल-प्लावन, अग्नि-प्रपात, भूकंप और अनेक आरंभिक दुर्घटनाओं से उसकी रक्षा हो सके अतएव यदि हम मनुष्य के मिजाज ओर उसके असली आहार को जान ले और किसी ऐसे स्थानका पता लागले जहाँ आँधी, तूफान, जल-प्लावन, अग्नि-प्रपात, भूकंप और अनेक आरंभिक दुर्घटना न ही सकती हों और वह स्थान मनुष्य के मिजाज के अनुकूल और उसके खाद्य उत्पन्न करने में भी योग्य होतो निसंदेह वही स्थान मनुष्य की आदिकी सृष्टि योग्य होगा । मनुष्य ही योग्य नहीं अपितु पशु पक्षी और वनस्पति आदि सभी प्राणियोंकी आदि सृष्टि योग्य होगा । क्योंकि संसार में ऋतुएँ चाहे जितनी हों पर सर्दी और गर्मी ये दो मौसम प्रधान है, यही कारण है कि पृथिवी पर दो ही  प्रकार के सर्द और गर्म प्रदेश पाये जाते है और दोनोंमें प्राणियोंकी वस्तियाँ भी पाई जाती है । यहाँ तक की मनुष्य पशु पक्षी और वनस्पति सभी पाये जाते है किन्तु मनुष्योंको छोड़कर सर्दी और गर्म देशों में रहनेवाले पशु पक्षियों के शरीरोंपर बाल अधिक वा कम होते है, अर्थात सर्द देशवालोंके बाल बहुत और गर्म देशवालोंके बाल कम होते है ।

        ग्रीनलैण्ड आदि शीतल देशोंमें पशु पक्षी नहीं रहते किन्तु मनुष्य और जलजंतु पाये जाते है, तथापि मनुष्योंके शरीरपर बाल नहीं रहते । इसमें यह बात स्पष्ट होगयी की केवल सरद देशोंमें रहने मात्रसे ही बड़े बड़े बाल उगने नहीं लगते बल्कि जीव जन्तुओं को बाल दिए गए है, उनमे ही हे और जिनको नहीं दिए गए उनमे नहीं है । परंतु यह बात तो निर्विवाद है कि जो बालवाले प्राणी है निसंदेह ठन्डे देशोंके लिए बनाये गए है और जो बिना बालवाले है वे गर्म देशोंके लिए पैदा किये गए है । किंतु स्मरण रहे की यहाँ ठन्डे देश से अभिप्राय ग्रीनलैण्ड नहीं है जहाँ पशु और वृक्ष होते ही नहीं किन्तु मातदिल ठन्डे देशसे अभिप्राय है ।

        हिमालय के भेड़े (मेष) बकरे गाय घोड़े और अन्य जिव जन्तुओं के बालोंसे पाया जाता है कि वे उसी देश के अनुकूल है  । पर मनुष्यके शरीर पर वैसे बालोंके न होनेसे अर्थात ग्रीनलैण्ड आदि देशोमें न जाने कितने दीर्घकालसे (जहाँ वनस्पति तक नहीं केवल मछली खाकर बर्फकी गुफाओं में  रहना पड़ता है ) शीत के कारण शरीर ठिगना हो जाने पर भी उसके शरीरमें बालोंके न ठगने से प्रतीत होता है कि मनुष्य इतने ठन्डे देशोंमें रहने के लिए संसार में नहीं पैदा किया गया वह किसी विशेष विशेष स्थान में ही रहने योग्य है । जब मनुष्य पृथ्वीके अमुक अमुक स्थानमें ही रह सकता है तो यह कल्पना निकाल देने योग्य है कि मनुष्य धरती भर में सर्वत्र पैदा हो सकता है ।

         अब यह बात निर्विवाद होगयी कि "मनुष्य प्रधान खाद्य दूध और फल है" दूध पशुओंसे और फल वृक्षोंसे पैदा होते है । इससे पाया जाता है कि मनुष्य के पाहिले वृक्ष और पशु हो चुके है तथा मनुष्य ऐसे मातदिल देशोंमें रह सकता है जहाँ पशु रह सकते हों और वनस्पति उग सकती हों । पहाड़ोंके सबसे ऊंचे बरफानी स्थानों और ग्रीनलैण्ड आदि देशों में वनस्पति नहीं उग सकती इसलिए वहां पशुपक्षी भी नहीं रहते, उससे ज्ञात होता है कि वनस्पति और पशुपक्षी भी मनुष्य की भाँति किसी मातदिल देशके ही रहने वाले है।  अर्थात सारी सृष्टि किसी एकही स्थानमें पैदा हुई मालूम होती है ।

    इस में आपको दो शंकाये हुई होंगी :- पहिली यह की " ग्रीनलैण्ड आदि में मनुष्य क्यों पाये जाते है " दूसरी यह की " दो प्रकारके सर्द और गर्म प्रदेशोंमें रहनेवाले, बालवाले और बिना बालवाले प्राणी एकही देशमें कैसे उत्पन्न हुए ?"

( 1 )  पहिले प्रश्न  के उत्तर में  तो आप समझ सकते है कि जब मनुष्य, वृक्ष और पशुओंको बिना अर्थात् दूध और फलोंके बिना रह ही नही सकता और पशु बिना वनस्पतिके नही रह सकते तो ऐसे देशमे जहा ये दोनो पदार्थ  न होते हों वहा पैदाही नही हो सकता । विकासवादके अनुसार भी वह वहाँ  पैदा नही हो सकता, क्योंकि  मनुष्यके पहिले बन्दर होना आवश्यक है और बन्दर विजिटेरियन ( शाकाहारी ) है इसलिऐ वह बन्दर ऐसे देशमे मनुष्यको उत्पन्न  नही कर सकता । अतः मालूम होता है कि उन देशोंके निवासी मनुष्य  जल स्थलके परिवर्तनोंयुद्धों  और सभ्यता के समय प्रवासोंके कारण वहाँ  गये होंगे और पश्चात् सृष्टि  के परिवर्तनों  के कारण वहाँ  से न आसके होंगे, किन्तु प्रश्न  यह है कि पशु पक्षी  ऐसे स्थानों मे से किस प्रकार बाहर आ सकते है और किस प्रकार अपने अनुकुल स्थानों  को जा सकते है ? इसके उत्तर  में  निवेदन है कि सृष्टि  मे जब कभी कुछ अनुकुलता प्रतिकुलता होती है तो पशु पक्षियों  को मालूम हो जाता है और वे वहासे चले जाते है ।

       यदि किसी जगह कोई अज्ञात कुआँ  बन्द हो और बाहरसे जाहिर न होता हो वहाँ  आप भेड़ों  को लेजाऐ भेड़ें  उस कुऐके ऊपर जमीनसे आ जाएँगी । यदि उनका गोल बैठेगा तो कुएँ  का हिस्सा छोड देगा । इनसे भुगर्भ विद्याका बहुतसा हाल मालूम होता है । किंतु  शिक्षाका भिखारी केवल मनुष्यही बिना बतलाऐ कुछ भी मालूम नही कर सकता और आफत आनेपर वही फँस जाता है ।
(जो प्राणी जिस देशके अनुकुल बनाया गया है । वहाँ की भूमि, वहाँका जल, वायु उसको खींच लेता है । हिमालयके पक्षी अपने आप वहाँ चले जाते है, जल जन्तु आपसे आप पानीमे चले जाते हैं और पशु आपसे आप अपने अनुकुल जल वायुमे चले जाते है । मिसाल मशहूर है कि " ऊँट नाराज होता है तो पश्चिम को भागता है, क्योंकि मेरु देश पश्चिममे है और ऊँट मेरु देशों मे सुखी रहता है । पशु अपना अनुकुल प्रतिकुल स्थान जानने मे बड़े कुशल होते है । )
       
(2) दूसरे प्रश्न का उत्तर कि ' सरद और गर्म देशों मे रहनेवाले प्राणी एकही स्थानमे कैसै हुऐ '? उत्तर  बडा़ही युक्तियुक्त  और सरल है । हम पहिले बता चुके  है कि बीज किसी एक ही स्थान मे बोया जा सकता है अतः इस बृहसृष्टिका बीज जिससे दो प्रकारके सर्द और गर्म तासीर रखनेवाले वृक्ष  और प्राणी उत्पन्न  हुए है ऐसे ही देश मे बोया जा सकता था, जहाँ  सरदी और गर्मी कुदरती तौरसे मिली हों और जो पृथ्वी  के सब विभागों  से अधिक  ऊँची  हो अब आप पृथ्वी  के गोलेको हाथ मे ले और एक एक रेखा एक एक अंश देख डाले जहा ये दो गुण पाये जाये - अर्थात  जहाँ :-

 (1) सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती हों,
 (2) और वह सरदी और गरमी मिलने वाला सन्धिस्थान पृथ्वीभरसे ऊँचा हो । बस उसीको सृष्टिका आदिस्थान समझले । इसमे अधिक प्रमाण देने की यद्यपि आवश्यकता नही है तथापि हम यहा कतिपय विद्वानों के वचन उद्धृत करते हैं ।
(1= जहाँ सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती है वह देश वनस्पति पशु और मनुष्यों के मिजाज के अनुकुल तथा सबका खाद्य उत्पन्न करनेवाला होता है । और सरद गर्म दोनों देशों मे जाने लायक मिजाजवाले प्राणि पैदा कर सकता है ।
     2= आदि सृष्टि  मे सबसे ऊँचे स्थान की इसलिये  जरुरत है कि उस समय पृथिवी भरमे कही आँधी, कही तुफान, कहीं  ज्वालामुखीकहीं  जल-प्लावन, कहीं  भूकंप  की वृक्षों  के जलने का कारबनगैंस कहीं वृष्टि  बडी़  धूमसे पडती है पर जो स्थान सबसे ऊँचा है न तो वहाँ  पानी ( जलप्लावन ) आसके, न अग्नि-प्रपात निकल सके, न भूकंप  से पृथिवी  फट सके और न वहाँ  आँधी हो । अतएव आदि सृष्टि  के लिये सबसे ऊँचा ही स्थान उपयुक्त  है । )

डाक्टर  ई.आर.एलन्स, एल आर.सी.पी अपनी किताब ' मेडिकलखसे ' लिखते है कि " मनुष्य  निसंदेह गर्म और मोअतदिल मुल्कों  का रहनेवाला है, जहाँ  कि अनाज और फल उसकी खुराक के लिये उग सकते है । इनसान की खालपर जो छोटे छोटे रोम है उनसे साफ मालूम होता है कि मनुष्य  गर्म और मोअतदिल  मुल्कों  का रहनेवाला है । किन्तु बडे़  रोम सरद मुल्कों  के रहनेवाले मनुष्यों  के नही होते इसमे साफ प्रकट है कि मनुष्य  बर्फानी मुल्कों  में  रहनेके लिये नहीं पैदा किया गया " ।

इसप्रकार  विद्वान  अलफर्ड रसल एस.एल.एल.डी.एल.एस. आदिने ' डारविन दी ग्रेट ' मे भी लिखा है । देखो सफा 460 सन् 1889 लंदन छापा और ऐसाही डाक्टर  जबकिन साहबने भी लिखा है ।

मशहूर सोशलिस्ट कालचेंटर साहब कहते है कि " मनुष्य  मोअतदिल गर्म मुल्कों  का रहनेवाले है, कुदरती फल अनाजकी खुराक खाते हैं  और वहीं  मुल्क उनका स्वाभाविक  निवास स्थान है, जहाँ  ऐसी खुराक पैदा होती हो " । देखो रसाले सत्यका बल 28 वुल्लियात लेखराम-आर्य मुसाफिर ।

      उपरोक्त  विद्वानों  की जाच भी बतलाती है कि ऐसा ही मुल्क मनुष्यका जन्म स्थान हो सकता है जो गर्म मोअतदिल  हो यह "गर्म मोअतदिल " वाक्य बहुतही विज्ञान भरा है । मोअतदिल  उर्दू  मे सम शीतोष्ण  को कहते है । अर्थात्  जहाँ  सरदी और गर्मीका मेल हो, किंतु  जहा गर्मी  का हिस्सा  अधिक  हो वहो देश गर्म मोअतदिल  कहलाता है   और वही देश मनुष्यका असली वतन है ।

       इस आदि भूमिका  कर्ता प्रोफेसर  मैक्समूलर  बड़ी  जाफिशानीसे जॉच कर बतलाते है कि ' मनुष्य  जातिका आदि ग्रह एशियाका कोई स्थल होना चाहिएयद्यपि  उन्होंने  एशिया  में  कोई  स्थान  निर्दिष्ट नहीं  किया  किंतु  अपनी पुस्तकों  मे इसी प्रकार  से विचार  प्रकट किये है। परन्तु  इन विषयोंकी अधिक  खोज करनेवाले अमेरिका  निवासी  विद्वान  डेविस ' हारमोनिया ' नामी पुस्तक  के पाँचवें  भागमें जर्मनी  के प्रोफेसर  ' ओकन ' की साक्षी सहित इस बातको प्रतिपादन करते है कि -
      ' क्योंकि हिमाचल सबसे ऊँचा पहाड है इसलिये आदिसृष्टि हिमालयके निकट ही कही पर हुई ' ( देखो डेविस रचित हारमोनिया  भाग 5 पृष्ठ 328 )

      पहिले और इन दोनों  युरोपीय  विद्वानों  की साक्षीसे यह बात सिद्ध  होगई कि मनुष्यों  की आदिसृष्टि  'गर्म मोअतदिल  और पृथिवी  के सबसे ऊँचे स्थान भे हुई साथही वह देश और स्थान भी मालूम होगया कि वह देश एशिया  और स्थान हिमालय है जो शीत और उष्ण से मिलता और पृथिवी  भरमे सबसे ऊचा है ' अब हम सिद्ध  करते है कि वह स्थान कौनसा है ?

      मुंबई  की  ज्ञान प्रसारक मण्डलीकी प्रेरणासे फ्रामनी कावमजी हॉल मे संसारकी साक्षी मिस्टर खुरशेदजी रस्तमजी ( जो एक मशहूर विद्वान  थे )  'मनुष्यों  की  मूल जन्भ स्थान कहाँ था ' इस विषयपर व्याख्या  दिया था । उहका सारांश  यहाँ  उद्धृत करते है ।

     " जहाँ  से सारी मनुष्य  जाति संसार में  फैली । उस मूलस्थानका पता हिन्दुओंपारसियोंयहूदियों  और क्रिश्चियनोंके धर्म  पुस्तकों  से इस प्रकार लगता है कि यह स्थान कही मध्य एशिया  मे था । युरोपीय  निवासियों  की दन्तकथाओ मे वर्णन है कि हमारे पूर्वज राजा कहीं  उत्तर मे रहते थे   पारसियों  की धर्म पुस्तकों  मे वर्णन है कि जहाँ  आदि सृष्टि  हुई वहाँ  10 महिने सरदी और दो महिने गर्मी रहती है । माऊट-स्टुअर्ट , एलफिन्स्टन, थरनस आदि मुसाफिरों  ने मध्य एशिया  की मुसाफिरों  करके बतलाया  है कि  इन्दुकुश पहाड़ोंपर 10 महिने सरदी और दो महिने गरमी होती है । इससे ज्ञात होता है कि पारसी पुस्तकों  मे लिखा हुआ ' ईरानवेज ' नामका मूलस्थान जो 37° से  40°  अक्षांश  उत्तर  तथा 86° से 90° रेखांश पूर्वमे है निसंदेह  मूल स्थान है, क्योंकि  वह स्थान बहुत उचाईपर है । उसके ऊपरसे चारों ओर  नदियाँ  बहती है । इस स्थान  के ईशान मे कोणमे 'बालूर्ताग ' तथा 'मुसाताग' पहाड है । ये पहाड 'अलवुर्न' के नामसे पारसियोंकी धर्म पुस्तकों  और अन्य इतिहासोमें लिखे है । बलूर्तागसे 'अमू' अथवा 'आक्सरा' और 'जेक जार्टस' नामकी नदिया 'अरत' सरोवर में  होकर बहती है । इसी पहाड में  से 'इन्डस' अथवा 'सिन्धु' नदी दक्षिणकी ओर बहती है । इसीचर के पहाडों  मे से निकलकर बडी़  बडी़  नदियाँ  पूर्वतरफ चीनमे और उत्तर  तरफ साइबेरिया में  भी बहती ऐसै रम्य और शांत स्थान मे पैदा हुए अपनेको आर्य कहते थे और इस स्थानको 'स्वर्ग' का करते थे " यह देश उत्तर  इन्दुकुश  से लेकर तिब्बत  तक फैला था यहीं  कहीं  कैलास और मान सरोवर भी था यही कारण है कि स्वर्ग और त्रिविष्टप ( तिब्बत ) पर्याय माने गये है । अमरकोश में  लिखा है कि ' स्वरव्यय् स्वर्ग नाक त्रिदिव त्रिदशालयाः । सुरलोको द्यो दिवौ द्वे स्त्रिया क्लीबे त्रिविष्टपम् , अर्थात् स्वर्ग और त्रिविष्टप  ( तिब्बत ) एकही स्थान है ।

        दुनियाभर  के विद्वानों  और एतदेशीय पण्डितों की सम्मतियों को ध्यान मे रखकर अपने समयका सबसे बडा़  आर्यावर्तीय विद्वान  स्वामी दयानंद  सरस्वती  अपने सत्यार्थ प्रकाश मे लिखते है कि ' आदिसृष्टि  त्रिविष्टप  अर्थात्  तिब्बत  में  हुई ' तिब्बत  यथार्थ  मे दक्षिणकी गर्मी और उत्तर  की सरदी को जोडता है वह ऊँचा भी है तथा मनुष्यके मिजाज के अनुकुल और उसका खाद्यभी उपजानेवाला है । अतएव अब हम अपने द्वितीय  प्रश्न  का उत्तर  खतम करते हुए विद्वानों  का ध्यान  इसओर आकर्षित  करते है कि आदि सृष्टि  हिमालय  पर ही हुई और वहीसे मनुष्य  सारी पृथिवी मे गये । यह ख्याल गलत है कि मनुष्य  पृथिवी  के हरभाग मे पैदा हुए ।

अक्षरविज्ञान भाग ५  => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_30.html
अक्षरविज्ञान भाग ७  => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/11/blog-post_10.html