Friday 28 October 2016

अक्षरविज्ञान भाग ३

" कोई प्राणी अपने आकार को पलट नही सकता "

       विकासवादी कहता है कि नहीं नहीं तुम विकासवाद को नहीं  समझते । मनुष्य की शृंखला सम्बन्ध समस्त प्राणी और वनस्पति से नही है । किन्तु खास खास प्राणियोंका ही मनुष्य  विकास है । सुनो :-

       विकास का सिद्धांत है कि " जो प्राणी अपनी आप रक्षा नही कर सकता उसे सृष्टि जीवित नहीं  रखती अतः संसारके सभी प्राणी भोजनोपार्जन धुनमें  रात दिन व्यग्र रहते हैं । नाना प्रकार की चेष्टा करते हैं । चेष्टा  करते समय शरीर के जिस जिस भागपर अधिक वजन पड़ता है वही वही भाग बहुत समय के बाद विलक्षण प्रकार का बन जाता है। उसकी सन्तानकी सन्तान में  दीर्घकालके बाद एक विशेष अंग पैदा हो जाता है और एक नये आकार प्रकारकी जाति बन जाता है । इस थ्योरी  और सृष्टि  नियम के आधारपर विद्वानों  ने माना है कि :-

        आदि सृष्टि में  पानीपर एक ऐसा जन्तु पैदा हुआ जिसे न तो प्राणी कह सकें  न वनस्पति । उसने अपने पोषण करने के लिये प्रयत्न किया । उसकी वंश वृद्धि  हुई । वंशजों ने भी दैविक घटनाओं के अनुसार अपने पोषणार्थ मौका माहोलसे प्रयत्न करना शुरू किया । बहुत दिनके बाद उनमें से कुछ मछली बन गये । पानी में  बहुधा लकड़ी  पड़ी रहती है । जो मछलियाँ  लकड़ी  में  चढने का अभ्यास करती रहीं  वे वृक्ष में  चढ़ने वाली गिलहरी आदि बन गई । उधर जो किनारोपर स्थल में  अभ्यास करती रहीं  वे मेंढक आदि बनकर सुवर आदि बन गई  और इसी तरह क्रम  क्रम घोड़ा  बन्दर गौरेला ( वन मनुष्य ) होते हुए मनुष्य  बन गया " । ( देखो पिक्चरबुक ऑफ इवोल्युशन पृष्ट 154,155)

पाठक ! ' जड पानी से आरम्भ में  चेतन कीडा कैसे बन गया ' यह जटिल प्रश्न न करके उपरोक्त  विकासवाद का उत्तर यह है कि ' जो प्राणी जिस अंग वा जिस इन्द्रिय से अधिक काम लेता है उसके उस अंग वा उस इन्द्रिय के पूर्व  गुणों  में  कुछ वृद्धि  वा ह्रास हो जाता है यह सत्य है पर उस अंग वा इन्द्रिय का आकार प्रकार उलटा-सीधा टेढा-मेंढा नही हो जाता ' कोई नया अंग वा इन्द्रिय फूट नहीं  निकलती और न कोई अंगलोप भी हो सकता है । हम अपने इस आरोपकी पुष्टि में निम्रोक्त, तीन वैज्ञानिक युक्तियां देते है ।

( 1 ) किसी भी प्राणी की इच्छा से उसके शरीर में  हड्डी पैदा नहीं  हो सकती । हड्डी की शाखा नहीं  फूट सकती । दो पैरकी जगह चार पैर अथवा छे पैर नहीं  हो सकते । जिनके आँख नहीं  है उनके आँख पैदा नहीं  हो सकती और न हाथ पैर आँख वालों  के ये अंग गायब ही हो सकते है । क्योंकि  हम देखते है कि हड्डी का सम्बन्ध प्राणी के ज्ञान तन्तुओं से नही है । दात में  सुई चुभाइये अथवा टूटी हुई ( शरीरको छेदकर बाहर निकली हुई ) हड्डीको चाकूसे काटिये, आपको बिलकुल तकलीफ न होगी । जब दात और हड्डी का  सम्बन्ध आपके मन अथवा बुद्धि के साथ है ही नहीं  तो दात अथवा अन्य हड्डीपर आपकी इच्छा शक्ति का कैसै असर होगा ? जब आप अपने बालोंको अपनी इच्छा  से हिला नहीं  सकते उन्हें खडा नहीं  कर सकते तो वे आपकी इच्छासे कैसे घट बढ सकेंगे ? इसी तरह प्रयत्न से भी कोई चीज फूट कर बाहर नहीं  निकल सकती क्योंकि प्रयत्न  तो इच्छा  के बाद होता है । अतः विकास की थ्योरी, जो इच्छा  और प्रयत्न से अंगो अर्थात्  हड्डीयों की उत्पत्ति मानती है, बिलकुल असत्य है ।

( 2 ) भोजन प्राप्त करने में  आँख, नाक, जिह्वा और त्वचाकी आवश्यकता  हो सकती है पर भोजन प्राप्तिका सम्बन्ध शब्दके साथ कुछ भी नहीं  है, तब प्राणियों  में  कर्ण इन्द्रिय की उत्पत्ति  क्यों  और कैसै हुई ?


( 3 ) यदि जरुरत और इच्छा होनेपर उन पशुओं  के शरीरों  पर बाल उग और बढ सकते है, जो बर्फानी स्थानों में रहते हैं  तो हजारों  सालसे बर्फानी  स्थानों में  कष्ट पानेवाले ग्रीनलैण्ड आदि निवासी मनुष्यों के शरीरों  पर बाल क्यों  न उग निकले? हम देखते है कि जिनको परमात्मा ने ऐसे बाल दिये हैंउनके शरीरपर सरदी पडते ही बाल निकल आते हैं  और गर्मी के  मौसम  मेंनिकले हुए बाल कम हो जाते है ( देखो चिल्ड्रेन  मेगजीन फरवरी सन् 1914 ) पशुओंपक्षियों  की इच्छा  से तो छे महिने में बाल बढ जायें पर ग्रीनलैण्ड  के  मनुष्यों  के शरीरों  पर हजारों  वर्षों  में  भी बाल न उगे यह कैसा विकासवाद का अन्वेर है ? इच्छा  शक्ति  तथा प्रयत्न से जब शरीर पर बाल भी नहीं  उग सकते, उगे हुए बढ भी नहीं  सकते तो कान जैसी बेजरुरी इन्द्रिय और हड्डी जैसी बुद्धि  से भी सम्बन्ध न रखनेवाली वस्तु आपसे आप कैसे बन सकती है ? अतएव प्राणी आपही आप अपने आकार प्रकार में  फेरफार नहीं  कर सकति ।

क्या मिश्र योनिज जातिसे वंश चल सकता है?

       यदि यह कहा जाय कि दो श्रेणियों के  मिश्रणसे तिसरी विलक्षण जाति उत्पन्न हो जाती है अतः सम्भव हैंदो श्रेणियों  ने मिल मिल कर जगत् की इतनी जातियाँ  करदी हों ? इसका उत्तर  ' सृष्टि  ने आपसे आप दे दिया है । सृष्टि  ने जो उत्तर  दिया है रहस्यपूर्ण  है । माली एक पेडसे कलम लगाकर और दूसरे में  लगाकर दोनोसे विलक्षण फल तैयार कर लेता है पर विलक्षण फल दूसरा वृक्षअथवा दूसरे फल पैदा नहीं  कर सकता । यह चरित्र हम रोज बगीचों  में  आम और बेर आदिके वक्षों में  देखा करते है । इसी प्रकार गधे और घोडीसे खच्चर नामका एक विलक्षण पशु पैदा हो जाता है पर वह भी औलाद पैदा नहीं  कर सकता ! ये उदाहरण है, जो प्रबलतासे ' मिश्र योनिज जाति ' का खण्डन करते है । मिश्र योनिज जातिका ही खण्डन नहीं  करते किन्तु एक सच्चा और वैज्ञानिक तर्क देते है :-

        “यदि कोई भी जाति जरा भी अपनी वंश परम्पराके प्रतिकूल अपने शरीर में कोई भी नई बनावट उत्पन्न करेगी तो उसका वंश न चलेगा "। पर कुछ योनियाँ ऐसी भी पाई गयी है, जिनके मिश्रणसे वंशपरंपरा चलती है। पर वे जातियाँ जो हमारी दृष्टि में दो समझ पडती हैं, निस्सन्देह कुदरत की दृष्टि में एकही है, अन्यथा उन दोनों के मिश्रणसे वंश कदापि न चलता ।

हमारी दृष्टि में  - हमारी बाँधी हुई शृंखला में  हमारी नियत कियी हुई व्यवस्था में  सरासर भूल है । हम बहुत करके बाहरी आकार प्रकारकी समता देखकर ही लिंग बनाते है पर वह सृष्टि नियम के अनुसार नहीं  होती ' क्या घोडे और गधेकी समता चुनने में हमने अपनी समझ में  कोई गलती की है ? क्या गधा बिलकुल ही घोडेकी शकलका नहीं  है? पर सृष्टि  कहती है, न गधे और घोडे से कुछ भी सम्बन्ध  नही है । '

       हम काम पडनेपर बकरी और मृगको बिलकुल भिन्न भिन्न जाति कहदें तो ताज्जुब नहींपर सृष्टि  दोनों  को एक समझती है । सुना गया है कि इन दोनों  के मिश्रणसे वंश परंपरे चलती है  । हम बाज समय बिलकुल एकही जातिके प्रान्त विभेदी शरीरों के  वैषम्यको देखकर यह कह उठते है कि यह बिलकुल कोई दुसरी जाति है । पर सृष्टि साबित करती है कि नही, यह दूसरी जाति नहीं  किन्तु एक ही है । टेराडेल्फिगो के मनुष्यों  को देखकर डार्विन जैसा प्राणिशास्त्री  कह उठा था कि ' उनको देखकर इस बातपर कठिनतासे विश्वास किया जा सक्ता है कि वे भी हम लोगों  की तरह मनुष्य  है ', ( ऐज्युकेशन किताब )
       किन्तु  वही डार्विन बन्दर और गौरिला को देखकर चिल्ला उठाया कि " मनुष्य निसंदेह इनका समीपी और इन्हीं  का उन्नत परिणाम है"। लेकिन सृष्टि  ने उसके अनुमान को उसी तरह काट दिया जिस तरह घोडे और गधे के साम्य तथा बकरी और हिरणके वैषम्यवाले अनुमान को काट दिया था । मतलब यह कि जिन जातियों  से मिश्र-योनिज वंश चल सकता है वे भिन्न जातियाँ  नहीं हैवे केवल टेराडेल्फिगो के  मनुष्यों की  भाँति  रुप बदले हुए एक ही जाति है और जिन जातियों  से मिश्र योनिज वंश नही चल सक्ता वे निस्सन्देह  बिलकुल भिन्न-भिन्न जातियाँ  है । मनुष्य के संयोग से गौरिला बन्दर आदि से लेकर घोडे गधेतक किसीमे भी गर्भ धारण नहीं  हो सकता अतः मनुष्य  उस शृंखला  का नही है । किन्तु हिरण और बकरी अथवा टेराडेल्फिगो  और मनुष्य  यद्यपि  देखने आकार प्रकार में  भिन्न  है पर उनमे वंश चलता है, इसलिये वे एक हैं । प्राचीन ऋषियों  ने इसपर बहुत कुछ विचार करने पर निश्चय  किया था कि :-

" समानप्रसवात्मिका जाति: " (न्याय अध्याय 2 आह्निक 2 श्लोक 68)

      अर्थात् जाति वही है, जिसमें  समान प्रसव हो-जिनके पारस्पारिक योगसे वंश चले । वे भिन्न रुप होनेपर भी एक ही जाति है । किन्तु आमों  की कलमों से उत्पन्न हुए फलों  और घोडे गधेसे उत्पन्न हुए खच्चरसे वंश नहीं  चलता इससे वे एक जाति नहीं  कहे जा सकते 

       कलमी आममें वृक्ष और फल क्यों  नहीं  लगते ? खच्चर के औलाद क्यों  नहीं  पैदा होती ? इसका उत्तर भारतवर्ष के अतिरिक्त संसार में  कोई भी देश ठीक ठीक नही दे सकता । क्योकर दे सकेगा इस पहेलीपर अन्दर तो कर्म, कर्मफल और उनका भोग तथा पुनर्जन्म  का गूढ रहस्य भरा हुआ है ।

पुनर्जन्म की यह प्रक्रिया है कि मनुष्य के कर्मों के साथ साथ उसके बाह्य शरीर और अन्तर शरीरों पर विलक्षण परिवर्तन होता है ।

इसे प्राय सभी लोग जानते है कि चोर और डाकुओं  की शकले भयानक हो जाती है, अन्तःकरण समेत आत्मा कर्मों  के कारण विलक्षण बन जाता है और मरने के बाद ऐसी योनि में  आकर स्थित होता है  । जैसै कर्म होते है । अब यदि यहाँ  पृथ्वीपर आप कोई कृत्रिम, सृष्टि  अथवा नियम के प्रतिकूल  नई जाति बना डाले तो उसमे आने के लिये बीज कहाँ से आयेगा ? क्योंकि बीज तो वहाँ  वही है, जो यहाँ  से गया है बीजे क्या कोई दूसरी चीज है ? वह तो वही मृतक पूर्वजों  का लिंग शरीर है । यदि ऐसा न होता तो खच्चर के वीर्यसे जीव क्यों न उत्पन्न होते, कलमी आम में  आमके बीज क्यों  न होते ? पर हों कहाँ से ! खच्चर ने गधे के वीर्य से निकलकर घोडीके गर्भ में  अपना रुप दोनों  से भिन्न एक नये प्रकारका बनाया था यही कारण हुआ कि उसके वीर्य में  जीव आकर्षित न हुए । विजातीय किस सम्बन्ध  से आकर्षित  करे ? यही कारण है कि कलम किये हुए वृक्षों  के फल भी अन्य फल नहीं  देते है । इस उदाहरण से विकासवाद के निम्नोक्त दोनों  सिद्धांत  कि :-

(1) आपही आप धीरे धीरे माता, पिताके अतिरिक्त भी कुछ गुण एकत्रित करते करते कुछ एक नये रुपकी नई जाति बन जाती है अथवा

(2) पृथक पृथक दो श्रेणियों के मिश्रण से मिश्र योनिज जाति बन जाती है । गिरगये । मिश्र योनिज जातिका सिद्धांत तो प्रत्यक्षही खण्डित होगया किन्तु परोक्षरीतिसे यदि सूक्ष्मतया देखो तो विकासवाद का क्रमक्रम उन्नतिसे वंश विलक्षण हो जाता है यह वाद भी उडगया, यथा -

प्रश्न:- खच्चर के औलाद क्यों नहीं होती ?
उत्तर:- मिश्र योनिज जाति होने से ।
प्रश्न:- मिश्र योनिज जाति होने से औलाद क्यो नही होती?
उत्तर:- इसलिये कि उसने अपनी वंश परम्परा अर्थात् बाप दादा के प्रतिकूल अपने आकार प्रकार में एक विलक्षण उन्नति की ।
प्रश्न:- मिश्र योनिज जातियों में भी तो वंश परम्परा चलती है ।
उत्तर:- वे जातियाँ दो नहीं किन्त एकही है ।
 प्रश्न:- उनके आकार प्रकार तो भिन्न भिन्न है, और उनसे बच्चा भी पैदा होता है?
उत्तर:- उनके आकार प्रकार हमारी दृष्टि में उसी प्रकार भिन्न है जिस प्रकार टेराडेल्फिगो के मनुष्यकिन्तु सृष्टि की  दृष्टि में  वे समान प्रसवा एकही जाति के दो भेद हैं ।

जब यह सिद्ध  होगया कि अपनी, वंश परम्पराके प्रतिकूल जरा भी आकार प्रकार में  परिवर्तन होने से वंश नही चलता, तब विकासवाद में क्रमक्रम उन्नतिवाले धोखे के विश्वास में  कुछ भी दम बाकी न रहा ।

यहां  तक यह दिखला दिया गया कि " गणितकी रीतिसे क्रमक्रम उन्नति सृष्टि  की आदिसे आजतक इतने दिनों  मे नही हो सकती । कोई भी प्राणी अपनी हड्डियों  मे काबू न रखपाया कारण अपना आकार प्रकार स्वयं बदल नहीं  सकता और न मिश्र योनि सम्बन्ध  से वंश चल सकता है "

अब आगे बताते है कि मनुष्य  बन्दर आदि पशु विभाग का प्राणी नहीं  है ।

अक्षरविज्ञानं भाग २ =>http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_25.html
अक्षरविज्ञानं भाग ४ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_29.html

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