Saturday 29 October 2016

अक्षरविज्ञान भाग ४

मनुष्य बन्दर आदि पशु विभाग का प्राणी नहीं  है ।

      बन्दर और गोरेला (वन मनुष्य ) की बनावट में उतना अन्तर नहीं  है जितना गोरेला और मनुष्य में अन्तर है, और यह अन्तर ऐसा है, जिसको विज्ञान कभी भी एक न होने देगा । सुनो !

      संसार में  मनुष्य  को छोड़कर  जितने  प्राणी है किसी के भी बालों में रंग और बनावटका वैसा परिवर्तन नहीं  पाया जाता जैसा मनुष्यों के  बालों में । जो गाय सफेद होती है, आजीवन सफेद ही रहती है । जो घोडा लाल होता है, आजीवन लाल रहता है । जो बन्दर भूरा होता है, भूराही रहता है । और जो वनमनुष्य जिस रंगका होता है, आजीवन उसी रंग का रहता है । पर मनुष्य के  बालों  का रंग चारबार पलटता है । पैदा होनेपर भूरे, फिर काले, तब सफेद और अन्तमे पिंगल हो जाते है । मनुष्य  का बालों  के साथ क्या सम्बन्ध है ? इस बात का उत्तर देना भारतवर्ष के अतिरिक्त  और किसी देशके पण्डितका काम है । वेद मे लिखा है कि :-

" बृहस्पतिः प्रथमः सूर्यायाः शीर्षे केशाँ अकल्पयत् । अथर्व 14/1/55 "

         अर्थात् ' बुद्धि तत्त्वने पहिले ही सूर्य के द्वारा शिरमे बालों को  पैदा किया ' मनुष्य  का शिर आकाशकी ओर है, आकाश जिसको द्यौ, अग्नि, बृहस्पति  आदि कहते है बुद्धि तत्त्वको प्रकाशक और सूर्यकिरणों के द्वारा बुद्धि तत्त्वको मनुष्य के शिर में पहुचाना है । अब निर्णय होगया है कि ईथर (आकाश) ही सूर्यको भी प्रकाश देता है और ईथरही विद्युत को भी पैदा करता है । विद्युत से और केशों  से  कितना सम्बन्ध है वह कहने की जरुरत नहीं  है । केशोंपर विद्युत का असर बहुत ही शीघ्र पडता है । केशों में  एक डंडी रगडकर कागजके टुकड़े के पास लेजावो कागज खींच कर डंडी में  आजायेगा । जबसे बच्चा ज्ञान प्राप्त करने लगता है तभीसे बाल श्याम ( काले ) रंगके होजाते है । श्याम रंगपर सूर्यका प्रकाश कितनी जल्दी पडता है यह भी कहने की जरुरत नही हैं । इस विवरण से समझ सकते हो कि जिनके बालों  का रंग नहीं  बदलता ऐसे बन्दर और वनमानस कभी मनुष्य  के बुजुर्ग हो सकते है ? कभी नही ।

       जिस प्रकार बालों की  विचित्रता आपने पढ़ी उसी प्रकारकी विचित्रता मनुष्य में  एक और है । वह यह कि मनुष्य पानी में बिना सिखलाये हुए नहीं  तैर सकता । एक चींटीसे लेकर पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक  कि बन्दर भगवान भी पानी में डालते ही तुरन्त तैरने लगते हैंएक क्षणभर भी यह नाविकज्ञान किन्तु महाज्ञान सीखपे के लिये उनको किसीका सहायताकी आवश्यकता नहीं होती । किन्तु मनुष्य  महाराज को तैरना बिना सिखाये नहीं  आता, यही कारण है कि हरसाल अनेक मनुष्य जल में डुबकर मर जाते हैं । तैरना ही क्या, मनुष्य  को बिना सिखलाये कुछ भी नहीं  आता । पर अन्य प्राणियों को उनके निर्वाह का सभी ज्ञान बिना किसी गुरु  के  वंश परम्परानुसार होता चला आता है । किन्तु हाँ, मनुष्य  स्वप्न में उडता और तैरता अवश्य है । स्थलके प्राणी जागते हुये तैर लेते हैं और मनुष्य स्वप्न में  उड लेता है, यद्यपि इस लोक में इन दोनों  विद्याओं की शिक्षा दोनो मे से किसी को नहीं  दी गई । क्या कृपा कर युरोप के विद्वान इसका कारण कह सकेंगे ? भी नहीं  । युरोप के क्या सारे संसार के लोग इन बातों का उत्तर नहीं  दे सकते । पर भारत ! वह तो ऐसै प्रश्नों के उत्तर देने के लिये ही राजपाट, व्यापार, कलाकौशल छोड़कर सन्यासी बन बैठा है ।

       लीजिए उत्तर सुनिये । यह कौतुक पुनर्जन्म का ज्वलन्त दृष्टान्त प्रमाण और प्रत्यक्ष अनुभव है । अनेकों  जन्म जन्मान्तरों मे प्राणियों ने नाना प्रकारकी योनियों में प्रवेश किया है, समय पडने पर वही संस्कार जाग्रत हो जाते है और प्राणी जल में पडते ही, मनुष्य सोते सय संकट में पडते ही तैरने और उडने लगता है । किन्तु मनुष्य अपनी इस देह के साथ बिना सिखाये कुछ भी नहीं कर सकता ।

         अब इस घटना को विकासवाद के साथ मिलाकर हम प्रश्न करते है कि " मनुष्य के  पिता बन्दर देव तो तैरना जानते है, पर यह विकास को प्राप्त  हुआ उनका पुत्र ' मनुष्य ' जो अधिक उन्नत समझा जाता है तैरना नही जानता । इसका जवाब क्या है " , ? इसी प्रकार वृक्षों की खुराक प्राणनाशक वायु और प्राणियों की खुराक प्राणप्रद वायु है, वृक्ष प्राणप्रद वायु देते है और मनुष्य प्राणनाशक वायु देते है । वनस्पति और प्राणियों से भी कोई जीवन सम्बन्धी अथवा सामाजिक वा शृंखला  सम्बन्धी मेल नहीं  मिलता । तब विकासवादी क्रम क्रम उन्नति सिवा बच्चों के खेलके और क्या कही जा सकती है ?

        इन तीन दृष्टान्तो से दिखला दिया गया कि मनुष्य पशुओं  से और प्राणि वर्ग वनस्पतियों से कुछ भी सम्बन्ध  नहीं  रखते ह आगे चलकर दिखलाते कि युरोप के पण्डितों को अँधेरी रात में  क्यों ठोकर खानी पड़ी है ।


" युरोपीय विद्वानों को धोखे में डालने वाली बाते "

    जिस प्रकार मनुष्य और वनमनुष्य को देखकर दोनों के एक होने का सन्देह होने लगता है, उसी प्रकार चमगादड़  ( BAT ) को देखकर पशुपक्षियों की शृंखला में विचार होने लगता है और मछली तथा पक्षी, सूसर और भैंस को देखकर भी सन्देह होने लगता है । इसी प्रकार नागबेल और सर्प के मिलान तथा अन्य सहस्त्रों वनस्पति और कीटों को देखकर निर्णय ही नहीं होता कि इसे कीट कहें या वनस्पति ? ऐसी दशा में एक बात यह ध्यान आये बिना नहीं रह सकता कि क्या यह एक रुपता की ही बहुरुपता है और वास्तव में एक दूसरें उतना ही सम्बन्ध है, जितना कि बापका बेटे से । परन्तु जरा गहरी नजर से देखने पर और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर विचार करने से सारी उलझन सुलझ जाती है और मामला बातकी बात में साफ हो जाता है ।

(1) नागवेल वह वनस्पति है, जो सुवर्ण के तारों की भाँति वृक्षों में लिपटी रहती है । उसकी जड़को भूमिकी दरवार नहीं होती । वह दूसरे वृक्ष के ही उपर सर्पकी भाँति रेंगती रहती है । उसी को खाकर खुद बढ़ती और सन्तान बडा़ती है, टूटनेपर टूटा हुआ टुकडा अलग एक लता बनकर अपना विस्तार करने लगता है । यद्यपि यह वनस्पति सर्पादि जन्तुओं से बहुत कुछ मिलती है इसे नागवेल कहते भी हैं  पर वनस्पती  के गुण अधिक से अधिक है  इसलिये इसे वनस्पति  ही कहते है ।

(2) बहुतसे कीटाणु और वनस्पति पुद्रल एकही प्रकारके होते है । किसी प्रकार भी निश्चय नहीं होता कि इन्हें वनस्पति श्रेणी में रक्खे या कृमि कीट जन्तुओं की श्रेणी में ।

(3) वन मनुष्य और बन्दर मनुष्य की भाँति छाती तानकर खडे़ नहीं हो सकते, वै जरा झुके हुए होते है ।

      आप सारी चेतनसृष्टिका एक सृष्टि नियम के द्वारा विभाग करें  तो उनकी शारीरिक रचनाके माफिक तीन महाभाग होंगे । पहिले खडे शरीरवाले अर्थात् आकाशकी ओर सिर वाले ' मनुष्य ' दूसरे आडे शरीरवाले, अर्थात उत्तर दक्षिणकी ओर सिरवाले ' पशु ' जिनमे जलस्थल और वायु तथा फन वाले भी है । तीसरे नीचेकी ओर सिरवाले, वृक्ष । यद्यपि यह तीनों प्रकार के शरीरों  का वर्णन पूर्णरीतिसे हम यहाँ नहीं करना चाहते कि क्यों ये तीन प्रकारकी बनावटें होती है ? पर इतना कहे देते हैं  कि ज्ञानका दुरुपयोग करने में सिर द्यौ ( आकाश ) की ओर में हट जाता है और पशु होजाना पडता है तथा ज्ञान और कर्म दोनों  के दुरुपयोग से सिर और कर्मेंन्द्रिय ( हाथ पैर ) भी छीन ली जाती हैं  और वृक्ष बनाकर उलटा ( सिर नीचे ) करके जमीन में  गाड दिया जाता है । बस इन्ही तीनों श्रेणियों में जाने के लिये  जो दरवाजे रक्खे गये है , अर्थात ऊपर कही हुई बन्दर चमगादड़ आदि जो सन्धि-योगियाँ है वही विकासवाद के सिद्धांन्तियों को हैरान कर रही है अतएव आओ, हम इसका कारण समझा दें । आप गौर करके देखे तो सन्धियोनियाँ भी दो प्रकारकी पायेंगे । एक उत्तम, दूसरी निकृष्ट । जैसै बन्दर और वन मनुष्य, नागवेल और मानेर तथा ' यमोवा ' आदि मनुष्य योनी से जब प्राणी नीच योनी में  जाता  है तो मानो  उस समय उसमें अधिक पशुता होती है इसलिये सन्धियोनि भी अधिक पशुतासे भरी हुई ' बन्दर ' होनी चाहिए ।

       पर पशुयोनिसे जब मनुष्य योनि मे आता है । तो उसमे अधिक सात्विकता  होती है । इसलिये वैसै मौके के लिये वनमानव गौरेला आदि है । इसी भाँती कोई पशु जब वृक्ष योनि में  जाता है तो वह नावेल आदिके द्वारा जाता है, क्योंकि  नागवेल में  वनस्पति पना अधिक  है। पर यदि कोई जीव वृक्ष योनि से पशु योनि मे आनेवाला है तो वह मानेर यमोवा आदिके द्वारा आयेगा जिनमें कीटत्व अर्थात् प्राणित्व अधिक है । इसी प्रकारसे प्रायः सब जातियों सब प्राणियों में अच्छे और बुरे दो भेद दिखाई पडते है, और सुचित कर रहे है कि एक नीचे जा रहा है, दुसरा ऊँचा आ रहा है । पर कभी भी ऐसा नहीं  हो सकता कि कुछ बन्दरों  की औलाद स्वयं मनुष्य बन जाये और करोड़ों बन्दर अबतक बन्दरही बने रहे । विज्ञान बता रहा है कि मैटर अर्थात् प्रकृति मे एकही साथ मोशन अर्थात गति दी गई  है और ठीक भी है यदि मोशन देने वाली शक्ति ' फोर्स ' सर्वत्र है, व्यापक है तो उसकी की हुई गति भी सर्वत्र ही हुई होगी और उस गति में  बननेवाले कार्य भी सब एक साथही बनने शुरू हुए होंगे । तब कोई कारण प्रतीत नहीं  होता कि थोडेसे बन्दर आदमी बनगये और बाकी सब बन्दर ही पडे है । क्या उनको अबतक कुछ भी आकार प्रकार में  ह्रास अथवा विकास करनेकी जरुरत नहीं  हुई । हमें अफसोस है कि वैज्ञानिकों का नाम बदनाम करनेवाले वैज्ञानिकों को ऐसी ऐसी मोटी बातें  भी नही सूझी


      हमारे इस योनियों तथा सन्धियोनियों और पुर्वजन्मके बारिक विवरण में  यह बात जरूर प्रकाशित होगई होगी कि मनुष्य किसी दूसरी योनिका विकार नही है । वह स्वयं मनुष्य का ही पुत्र है । पर यहाँ  शंका जरूर होगी कि " मनुष्य शरीर से पशुयोनि में जाने के लिये उसके लिंग शरीरको बन्दरकी योनिमें जाना पडता है । इधर उपर कहा गया है कि लिंग शरीरों  को वही खींच सकता है, जिसका जिससे समान प्रकारका सम्बन्ध है । यदि मनुष्यके लिंग शरीरको बन्धर खींच सकता है तो निश्चयही बन्दरका मनुष्यके साथ मिश्र योनिज जातिका भी हिरन बकरी का सम्बन्ध होगा " किन्तु इसका उत्तर हमने पहिले ही पिछले लेखों  मे दे दिया है, फिर से उसे यहा रखते है । मनुष्य  के जीते ही जी उसके कर्मानुसार बाह्य आकृति से लेकर लिंग शरीर पर्यन्त परिवर्तन हो जाता है । जब मनुष्य पशु योनिमें जानेवाले कर्म करता है तो जीते ही जी उसका लिंग शरीर बन्दरकी शकलका हो जाता है जिसको बन्दर आसानी से खींच लेता हैं । बन्दर, बन्दर के ही रुपको खींचता है मनुष्य के रुपको नही । तात्पर्य यह कि प्राणियों की सन्धियोनियों में जो एक रुपता है वह मरने के बाद पुनर्जन्म मार्ग सरल करने के लिये है नाकि इसी जन्म मे मिश्रयोनिज वंश स्थापन करने के लिये । अतः आशा है कि सन्धियोनियों  को देखकर कोई विद्वान  भ्रम में  न पडेंगे ।

अक्षरविज्ञान भाग ३ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_28.html
अक्षरविज्ञान भाग ५ => http://akshar-vigyan.blogspot.in/2016/10/blog-post_30.html

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